सुप्रभातम्: हमे तीर्थयात्रा क्यों करनी चाहिये? जानिए किसे मिलता है तीर्थ का फल

हिमशिखर धर्म डेस्क

‘जिसके हाथ सेवा कार्य में लगे हैं, पैर भगवान के स्थानों में जाते है, जिसका मन भगवान के चिन्तन में संलग्न रहता है, जो कष्ट सहकर भी अपने धर्म का पालन करता है, जिसकी भगवान के कृपा पात्र के रूप में कीर्ति है, वही तीर्थ के फल को प्राप्त करता है।’ (स्कन्दपुराण)

शास्त्रों ने मनुष्य को अपने कल्याण के लिए तीर्थों में जाकर स्नान करने, सत्संग करने, दान करने, धार्मिक अनुष्ठान करने व पवित्र वातावरण में रहने की आज्ञा दी है। ‘तरति पापादिकं यस्मात्’ अर्थात् जिसके द्वारा मनुष्य पाप से मुक्त हो जाए, उसे ‘तीर्थ’ कहते हैं।जैसे शरीर के कुछ भाग अत्यन्त पवित्र माने जाते हैं, वैसे ही पृथ्वी के कुछ स्थान अत्यन्त पुण्यमय माने जाते हैं। कहीं-कहीं पर पृथ्वी के अद्भुत प्रभाव से, कहीं पर पवित्र नदियों के होने से, कहीं पर ऋषि-मुनियों की तपोभूमि होने से व कहीं पर भगवान के अवतारों की लीलाभूमि होने से, वे स्थान पुण्यप्रद होकर तीर्थस्थान बन जाते हैं।

किसे मिलता है तीर्थ का फल

जिसके दोनों हाथ, पैर और मन काबू में हैं अर्थात् हाथ सेवा कार्य में लगे हैं, पैर भगवान के स्थान में जाते है और मन भगवान में लगा है, जो शास्त्रों-पुराणों का अध्ययन करता है, हर प्रकार से संतुष्ट रहने वाला, द्वन्द्वों में सम रहने वाला, अहंकाररहित, कम खाने वाला, अक्रोधी, श्रद्धावान व शुद्धकर्म करने वाला है, वही तीर्थ के फल का भागी होता है।

किसे नहीं मिलता तीर्थ का फल

अश्रद्धावान, पापी, नास्तिक, शंकालु व हर बात में तर्क करने वाला तीर्थ के फल का भागी नहीं होता है।

जो लोग ‘तीर्थ-काक’ होते हैं अर्थात् तीर्थों में जाकर भी कौवे की तरह इधर-उधर कुदृष्टि डालते हैं, उनके पाप अमिट (वज्रलेप) हो जाते हैं फिर वे सहजता से नहीं मिटते। उन्हें भी तीर्थ का फल नहीं मिलता।

मन की शुद्धि सब तीर्थ स्थानों की यात्रा से श्रेष्ठ है।

मन की शुद्धि सब तीर्थस्थानों की यात्रा से श्रेष्ठ मानी गयी है। तीर्थ में शरीर से जल की डुबकी लगा लेना ही तीर्थस्नान नहीं कहलाता। जिसने मन और इन्द्रियों के संयम में स्नान किया है, मन का मैल धोया है; वही वास्तव में तीर्थ स्नान का फल पाता है। जलचर जीव गंगा आदि पवित्र नदियों के जल में ही जन्म लेते हैं और उसी में मर जाते हैं; पक्षीगण देवमन्दिरों में रहते हैं; किन्तु इससे वे स्वर्ग में नहीं जाते, क्योंकि उनके मन की मैल नहीं धुलती। जिस प्रकार शराब की बोतल को सैंकड़ों बार जल से धोया जाए तो भी वह पवित्र नहीं होती उसी तरह दूषित मन वाला चाहे जितना तीर्थस्नान कर ले, वह शुद्ध नहीं हो सकता।

जो लोभी, चुगलखोर, क्रूर, दम्भी और विषय वासनाओं में फंसे हैं, वह तीर्थों में स्नान करके भी पापी और मलिन ही रहते हैं। केवल शरीर की मैल छुड़ाने से मनुष्य निर्मल नहीं होता, मन की मैल धुलने पर ही मनुष्य निर्मल और पुण्यात्मा होता है।

मानसिक मल या मन की मैल

जब मन विषयों में आसक्त रहता है तो उसे मानसिक मल कहते हैं। जब संसार की मोहमाया व विषयों से वैराग्य हो जाए तो उसे मन की निर्मलता कहते हैं।

Uttarakhand

मानसिक तीर्थ

सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रह:।।

सर्वभूतदया तीर्थं तीर्थमार्जवमेव च।

दान तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमेव च।।

ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं नियमस्तीर्थमुच्यते।

मन्त्राणां तु जपस्तीर्थं तीर्थं तु प्रियवादिता।।

ज्ञानं तीर्थं धृतिस्तीर्थमहिंसा तीर्थमेव च।

आत्मतीर्थं ध्यानतीर्थं पुनस्तीर्थं शिवस्मृति:।।

अर्थात्—सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है, इन्द्रियनिग्रह तीर्थ है, सभी प्राणियों पर दया करना, सरलता, दान, मनोनिग्रह, संतोष, ब्रह्मचर्य, नियम, मन्त्रजप, मीठा बोलना, ज्ञान, धैर्य, अहिंसा, आत्मा में स्थित रहना, भगवान का ध्यान और भगवान शिव का स्मरण—ये सभी मानसिक तीर्थ कहलाते हैं।

शरीर और मन की शुद्धि, यज्ञ, तपस्या और शास्त्रों का ज्ञान ये सब-के-सब तीर्थ ही हैं। जिस मनुष्य ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया, वह जहां भी रहेगा, वही स्थान उसके लिए नैमिष्यारण, कुरुक्षेत्र, पुष्कर आदि तीर्थ बन जाएंगे।

अत: मनुष्य को ज्ञान की गंगा से अपने को पवित्र रखना चाहिए, ध्यान रूपी जल से राग-द्वेष रूपी मल को धो देना चाहिए और यदि वह सत्य, क्षमा, दया, दान, संतोष आदि मानस तीर्थों का सहारा ले ले तो जन्म-जन्मान्तर के पाप धुलकर परम गति को प्राप्त कर सकता है।

‘भगवान के प्रिय भक्त स्वयं ही तीर्थरूप होते हैं। उनके हृदय में भगवान के विराजमान होने से वे जहां भी विचरण करते हैं; वही महातीर्थ बन जाता है।’

Uttarakhand

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *